शनिवार, 14 अप्रैल 2012

मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का सत्ता का अहंकार .....

  पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी सहित तृणमूल कांग्रेस के कुछ नेताओं का और कार्यकर्ताओ का यह व्यवहार      वह बदलाव नहीं है, जिसकी बंगाल में अपेक्षा की गई थी। यह दुर्भाग्यपूर्ण है।' उनका और उनके नेताओ का व्यवहार सीधे तौर पर सत्ता के अहंकार का प्रतीक है । उनके कार्यकर्ताओ द्वारा प्रोफेसर के साथ मारपीट सीधे तौर पर एक तरह से गुंडई है । लोकतंत्र मे अपनी अभिव्यक्ति का अधिकार सभी को है और प्रोफेसर ने कुछ ऐसा अश्सिल कार्टून को नहीं इंटरनेट पर डाला है, की उन पर मुकदमा दर्ज हो। ममता इस कृत्य से ऐसा लगता है की वो अपने सत्ता के अंहकार मे चूर है। शायद ममता को यह नहीं मालूम की सत्ता का अहंकार जादा नहीं चलता है ,उन्हे इसका इन्दिरा गांधी और अन्य लोगो से सबक ले कर समझना चाहिए। बंगाल में जिस तरह से उनकी पार्टी के लोग व्यवहार कर रहे है वो क्या है ...?क्या उन सबको कानून के साथ खिलवाड़ करने की छूट है । क्या बंगाल की जनता ने उन्हे इन्ही सब के लिए बदलाव कर सत्ता सौपी है ....।  

शुक्रवार, 6 अप्रैल 2012

बुलेट न्यूज से दर्शक घायल,सुपर फास्ट से सनसनी


SATURDAY, 07 APRIL 2012 05:33

हेलमेट पहन कर देखिये न्यूज,खाली थाली में लंच स्पेशलबुलेट न्यूज़
देश के विभिन्न मीडिया शिक्षण संस्थानों को अपने पाठ्यक्रमों और डिग्रियों का पुनर्मूल्यांकन करना चाहिए. पत्रकारिता शिक्षण में छात्रों को जिन सामाजिक मूल्यों,सिद्धांतों और आदर्शों की शिक्षा दी जाती रही है,तथा उन्हें एक बेहतर पत्रकार बनाने के लिए उनके अंदर निष्पक्ष,स्वतंत्र, निर्भीक,संतुलित और विश्वसनीय पत्रकारिता का जो बीजारोपण किया जाता रहा है.लगता है,अब बीज की गुणवता और उससे उपजने/उगने वाली फसल में ही कोई नया रोग लगा गया है.

यह संकट भाषा,सामरिक ज्ञान,समझ और इसके प्रयोग के स्तर पर भी दिख रहा है. मौजूदा समय के मीडिया में जो नित प्रयोग हो रहे हैं,उसके हिसाब से शिक्षण संस्थान पैदावार नहीं बढ़ा पा रहे हैं.दोनों के सिद्धांत और प्रयोग के बीच संवादहीनता जैसी स्थिति है बनी हुई है.

आज न्यूज चैनलों पर इस अंदाज़ में खबरें परोसी जा रही हैं. मसलन,बुलेट न्यूज,आईपीएल का महायुद्ध,स्पीड न्यूज,न्यूज एक्सप्रेस,लंच स्पेशल,डंके की चोट पर,सुपर ३०,सुपर फास्ट,नान स्टॉप सुपर फास्ट,सुपर स्पेशल,सुबह का बाउंसर,दोपहर धमाका,दे दनादन,बोल टीवी बोल,बल्ले-बल्ले,२ जी,सनसनी और वारदात.

मीडिया शिक्षण संस्थानों को अब अपने डिग्रियों में बदलाव करके उपर्युक्त नामों से डिग्री-डिप्लोमा देना चाहिए और उक्त पर आधारित पाठ्यक्रम तैयार कर चाहिए.ट्रेनिंग/इंटर्नशिप भी उक्त क्षेत्र के विषय विशेषज्ञों से ही दिलवानी चाहिए.

सोचिये जरा !
 

यदि बुलेट न्यूज में रुची रखने वाले छात्र की ट्रेनिंग के लिए कुख्यात बंदूक चलाने वाला,स्पीड न्यूज,न्यूज एक्सप्रेस,सुपर फास्ट,नान स्टॉप सुपर फास्ट और सुपर स्पेशल न्यूज में करियर बनाने वाले छात्रों को कोई मशहूर ट्रेन,कार,ट्रक ड्राइवर ट्रेनिंग देता.

‘सुबह का बाउंसर’ के लिए किसी प्रसिद्ध बाउंसर, ‘दोपहर धमाका’ के लिए किसी बम ब्लास्ट करने में माहिर (शातिर) आदमी को तथा ‘दे दनादन’ के लिए किसी बाक्सिंग खिलाड़ी से ट्रेनिंग दिलाना कितना असरकारी और छात्रों के लिए लाभकारी सिद्ध होगा.

‘बल्ले-बल्ले’ के लिए क्रिकेटर,२ जी के लिए,इस घोटाले में शामिल और जो अभी अब तक बचे हुए हैं,उनसे ट्रेनिंग दिलाना कितना सामायिक होगा.

‘सनसनी’ और ‘वारदात’ के लिए उन संगठनों के सरगनाओं को आमंत्रित करना चाहिए,जिन्हें भारत और अमेरिका प्रतिबंधित कर रखे हैं.

यहाँ पर जिन विषय विशेषज्ञों का हमने जिक्र किया है,यदि दीक्षांत समारोह में प्रशिक्षु पत्रकारों को उन्हीं के हाथों डिग्री प्रदान की जाये तो इन पत्रकारों को ‘वारदात’ और ‘सनसनी’ के क्षेत्र में नौकरी टीवी चैनल तत्काल उनके घर जाकर देंगे. टीआरपी का तो पूछिए मत कहाँ तक उसका ग्राफ पहुंचेगा.

बुलेट न्यूज
 

गोली की रफ़्तार से खबरें देखना न भूलें ‘बुलेट न्यूज’ में.सिर्फ फलाने चैनल पर…

इस चैनल पर खबरें बुलेट की रफ़्तार से टीवी स्क्रीन पर चलतीं हैं.लहुलूहान दर्शक,सिवा कराहने के उसके सामने और कोई चारा ही क्या है.

इस तरह की खबरों की प्रस्तुति के लिए,उन्हीं एंकरों का चयन किया जाता है,जो बुलेट की रफ़्तार से खबरों को पढ़ सकें और उसी रफ़्तार में उसका सही-सही उच्चारण भी कर सकें (?)

दोपहर धमाका
 

जब पहली बार खबरिया चैनल पर यह ‘शब्द’ सुना तो एकबारगी लगा.दोपहर के समय में कहीं कोई बड़ा बम धमाका हुआ है. उस वक्त मैं दूसरे कमरे में था,मित्र को आवाज़ दी,कहा देखो,कहाँ धमाका हुआ.क्या स्थिति है.

वह हंसने लगा.बोला यह बम धमाका नहीं,चैनल का न्यूज धमाका है.मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा. इस खबर को प्रस्तुत करने वाले एंकर का ‘शब्द-संवाद’ और जोश-खरोश देखते बनता है.

‘शब्दों’ का धमाका,बम के धमाके से कहीं अधिक सनसनी पैदा करता है. चैनल को इससे क्या फर्क पड़ता है.खबरें धमाकेदार, रफ़्तार धमाकेदार,उच्चरण धमाकेदार.टीआरपी धमाकेदार और फायदा-मुनाफा भी धमाकेदार होना चाहिए.

इस तरह के प्रस्तुतीकरण का दर्शक के मन-मस्तिष्क पर कितना नकारात्मक प्रभाव होता है,चैनल पर इसका कोई फर्क नहीं पड़ता. यह दर्शकों की जिम्मेदारी है कि वे अपना दिल पत्थर कर,फिर टीवी देखें.

आईपीएल का महायुद्ध 


इस समय आईपीएल चल रहा है.इसे कई खबरिया चैनलों ने ‘आईपीएल का महायुद्ध’ नाम दिया हुआ है. इसके खबरों को इस कदर प्रस्तुत किया जाता है.जैसे न होकर दो देशों / दो टीमों के बीच युद्ध हो रहा हो ‘खेल प्रेम’ को ‘युद्ध’ में बदल देने की कला कोई, चैनलों से सीखे.

खेल समर्थकों/प्रसंशकों को एक दूसरे के खिलाफ खूंखार बना देना.उनमें बदला लेने की भावना पैदा करना. खेल प्रेम की जगह घृणा,आक्रोश,दहशत और नफरत और तनाव पैदा करना,यदि इन चैनलों का मकसद न भी हो तो भी यही सन्देश जाता है.खबरों में संतुलन की जगह आक्रामकता दिखाती है.

लंच स्पेशल
 

इस ‘महंगाई युग’ देश की अस्सी फीसदी जनता को दो जून के रोटी के भले लाले पड़े हो,लेकिन ‘चौथा खम्भा’ होने का दावा करने वाला मीडिया दर्शकों को खबर भी ‘लंच स्पेशल’ परोसता है.

लंच स्पेशल देखते समय आपके थाली में भले ही नमक-रोटी / चोखा-भात,चटनी-चवल,प्याज न भी हों या सुखी रोटी ही क्यों न खा रहे हों. सम्भव है,खाने का इंतजाम भी न हो,लेकिन ‘लंच स्पेशल’ खबर तो है न उसी को खाकर करेजा को ठंडा कीजिये.

भारतीय रेल 


भारतीय रेल भले सुपर फास्ट,नान स्टॉप,सुपर फास्ट स्पेशल होने के बावजूद सुपर फास्ट गति से न चल पा रही हों,लेकिन उसने अपना रफ़्तार,न्यूज चैनलों को दे दिया है,उसके रफ़्तार को न्यूज चैनलों ने बखूबी रफ़्तार दी है.रेलवे संकट में है तो क्या हुआ,चैनल तो मुनाफे में ‘फास्ट’ हैं न…?

सुबह का बाउंसर
 

आप सभी से गुजारिश है,सुबह की खबर देखते समय हेलमेट जरुर पहन कर देखा कीजिये. देखते समय भी अति सावधान रहिये और अपनी आँख,नाक और दांत की हिफ़ाजत कीजिए. पता नहीं कब टीवी बाक्स से बाहर निकल कर एंकर आपके थोबड़े पर ‘बाउंसर’ जड़/मार दे.खबरें भी देखिये,कैसी-कैसी-‘सुबह का बाउंसर’,क्या कहने.

बोल टीवी बोल
 

इस ‘शब्द’ से लगता है कि एक दिन ऐसा जमाना आयेगा,जब एंकर की जरुरत नहीं होगी,टीवी ही बोल पायेगा. संभवत: एक चैनल द्वारा यह उसी का पूर्वाभ्यास है.जाहिर है,जिस तरह के टेक्नोलाजी का विकास हो रहा है. उस हिसाब से लगता है की न्यूज चैनलों को इसका पूर्वाभास हो गया है.तभी तो ‘बोल टीवी बोल’ कार्यक्रम प्रस्तुत कर रहे हैं. जिन्हें बोलने के लिए मंच दिया गया है,वह तो बोल ही नहीं पा रहे हैं,लेकिन टीवी बोल रहा है..?

वारदात की सनसनी 


अपराध से जुड़ी खबरों को ‘सनसनी’ और ‘वारदात’ के रूप में जब से प्रस्तुत किया जाने लगा है.तब से बच्चे ही नहीं बड़े-बुजुर्ग भी घर में अकेले रहने पर डरने लगे हैं.

अपराध की खबरों की प्रस्तुति का जो अंदाज़ अपनाया गया,वह सूचना कम दहशत अधिक फैलाया है. जबकि इस तरह की खबरों की इस कदर प्रस्तुत करने की जरुरत थी,कि अपराध और अपराधियों के प्रति समाज में घृणा पैदा हो.

समाज उनका वहिष्कार करे,बजाय इसके,अपराधियों का महिमा मंडन और उनके ग्लैमर को इतने नमक-मसला लगाकर पेश किया जाता है की लोगों का अपराध के प्रति विकर्षण की जगह आकर्षण बढ़ रहा है.

यही वजह है कि सर्वाधिक घटनाएँ को टीवी और फिल्म देखकर अंजाम दिए जा रहे हैं. आज पैदा हुए नये-नये खबरिया चैनल आपसी प्रतिस्पर्धा और आगे बढ़ने की होड़ में सनसनी फैला रहे हैं. डी.डी. न्यूज को ही देखिये.वहां बहुत अधिक ग्लैमर तो नहीं है,लेकिन समाचारों में संतुलन तो है.

उसपर भले सरकार का भोपू होने का इलज़ाम है ,लेकिन खबरों में गुणवता और बहुसंख्यक जनता तक उसकी पहुँच तो है.सनसनी तो नहीं फैलाता.कमियां यहाँ भी है,लेकिन वैसी नहीं,जैसी प्राइवेट चैनलों में है. कम से कम आज भी अपने मूल स्वरूप को बनाये हुए है और खबरों को खबर के नजरिये से ही प्रस्तुत करता है,सूचना पहुँचाने के कर्तव्य से भी बंधे हुए है.

बिडंबना देखिये!
 

बम-विस्फोट,युद्ध और वारदात जैसी घटनाओं को खबर बनाते समय,खबरिया चैनलों की मानसिकता आमतौर पर इन घटनाओं के खिलाफ होती है और होनी भी चाहिए,लेकिन जब ये चैनल खबरों को धमाकेदार,मसालेदार या कहा जाये असरदार बनाने के लिए उक्त ‘शब्दों’ का इस्तेमाल करते हैं,तब उनकी इस विरोधाभास को क्या नाम दिया जाये.

मतलब यह कि ‘गुड़ खाने और गुलगुले’ से परहेज करने की जो साश्वत परम्परा समाज में है,वह मीडिया में भी है,अपने मूल सवरूप में.

सुझाव
 

१. खबर की प्रस्तुति खबर की तरह होनी चाहिए.

२. खबरों की पहुँच आम जनता तक होनी चाहिए.

३. खबरों की गुणवता पर खास ध्यान देने की जरूरत है.

४. संतुलित,वस्तुनिष्ठ,सत्य और तथ्य पर आधारित खबरों को बढ़ावा देने की जरुरत है.

५. उत्तेजना और सनसनी की जगह जनहित को प्राथमिकता देनी चाहिए.

६. आपसी प्रस्तिस्पर्धा खबरों के चयन और बेहतर प्रस्तुति के स्तर पर होनी चाहिए.

७. सूचित करने की जगह शोषित करने की परम्परा को त्यागना चाहिए.

८. अभिव्यक्ति की
 स्वतंत्रता के नाम पर ठगने की प्रवृत्ति को त्यागना चाहिए.

९. सामाजिक प्
 डॉ. रमेश यादवतिबद्धता,जवाबदेही,जिम्मेदारी और पारदर्शिता के मूल्यों को ज़िंदा रखने की चुनौती स्वीकारकरनी चाहिए.

१०. अंततः 
मीडिया पर संकट के समय जनता ही उसका साथ देगी,इसलिए जनता के साथ सरोकार और सक्रिय सम्बन्ध रखना पडेगा.


(लेखक पत्रकारिता एवं नवीन मीडिया अध्ययन विद्यापीठ,इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय,मैदान गढ़ी में सहायक प्रोफेसर हैं.)

मीडिया खबर डॉट काम से साभार !